बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
प्रश्न- भारतीय कला में मुद्राओं का क्या महत्व है?
अथवा
भारतीय कला में मुद्राओं के द्वारा कला योगदान किस प्रकार हुआ?
अथवा
मुद्राओं की विशेषताओं पर विचार व्यक्त करिये।
उत्तर -
भारतीय चित्रकला में मुद्रायें
विश्व की प्रत्येक कला केवल कलाकृतियों का इतिहास नहीं वरन् उस समय के जन-जीवन, रहन-सहन, प्रभाव, आचार-विचार कलाकार की अन्त:प्रेरणा का दर्शन रही है। किसी भी उत्कृष्टि श्रेष्ठ कलाकृति को तभी मान्यता मिली, जब उसे तकनीकी पक्ष के साथ-साथ भावनाओं का भी सहयोग प्राप्त रहा है, जिसके कारण कलाकृतियाँ विशेष सन्दर्भ में आती गईं। प्राचीन काल से ही जो गुफा चित्र प्रारम्भिक अवस्था में मिले हैं उनका अंकन करने वाला मानव कलाकार अपनी कला व सौन्दर्य बोध की शक्ति से भले ही अनजान रहा है, किन्तु उसने जो भी अभिव्यंजना की है। उसकी मन:स्थिति, उसके विचार सभी कुछ बोलते हुए प्रतीत होते हैं। यद्यपि ये आदिकालीन आकृतियाँ अत्यन्त साधारण एवं सरल रेखाओं तथा आकारों से अंकित हैं, लेकिन यदि उसका सूक्ष्मता से अवलोकन व अध्ययन किया जाये तो इन सभी आकृतियों में विषयानुसार दर्शक तक में अपने भावों का सम्प्रेक्षण करने की शक्ति आज भी विद्यमान है। ये आज के अभिव्यक्तिपरक संदर्भों में बिल्कुल सटीक हैं। मानव के स्वभाव, उसके आचार-विचार और उन्हीं के अनुसार इन आकृतियों में मुद्राओं के चयन का सफल प्रयास हुआ है।
कलाकार सदैव से ऐसे रूपों की रचना करता आया है जो जन-जीवन के अति निकट रहे हैं या दर्शक के लिए बोधगम्य हैं। शिकारियों की विभिन्न मुद्रायें, जीवन के विभिन्न क्रिया-कलाप, अपने जीवन के सभी दृश्य तथा अदृश्य को संजो लेने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं। मानव के धीरे-धीरे सभ्य होने के साथ-साथ, इसका कला इतिहास बदलता गया, किन्तु आकृतियों की अभिव्यक्ति में जो मानव स्वभाव प्रमुख भूमिका रखता है उसे दर्शाने का प्रयास निरन्तर चलता रहा है। विभिन्न कालों में विभिन्न स्थानों पर जितनी भी आकृतियाँ चित्रित की गई हैं, सभी में मानव स्वभाव के मूल रूप दर्शाने वाली मुद्राओं की सामान्यतः उपलब्धि होती है। अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों के साथ-साथ आधुनिक काल में प्राचीन काल से चली आ रही स्वाभाविक मुद्राओं के चित्र में प्रयोग आज भी रहा है। प्राचीन भारतीय गुफा चित्रों जैसे बाघ, बादामी, एलोरा, अजन्ता, सिंहल वांसल, एलीफेन्टा आदि गुफाओं के चित्रों के विषय आकृतियों की मुद्राओं से ग्राह्य हो पाये हैं। उनके अर्थों को इन मुद्राओं के आधार पर अनुमानित किया गया है। भारतीय जीवन दर्शन व मनोविज्ञान की प्रतिरूप ये मुद्राएं, शताब्दियों से जन-साधारण को प्रभावित करती आई हैं। भारतीय कलाकारों ने ऐसे रूपों एवं मुद्राओं की सृष्टि की जो साधक के लिए चिन्ता का विषय बन गयीं। चित्र दर्शन की पद्धति है जिसकी विभिन्न मुद्राओं, भावनाओं, रूपाकारों से अभिव्यक्ति होती है। कलाकार विभिन्न विचारों को रेखाओं रूपों द्वारा व्यक्त करता है। जब वास्तविक गुणों द्वारा अपने भावों को व्यक्त करने की सीमा पार कर लेता है तो वह विरोध द्वारा संकेतों से विचारों को व्यक्त करता है। इसलिए हम भारतीय अध्यात्म दर्शन से सम्बन्धित बुद्ध की विभिन्न हस्तमुद्राओं को ले सकते हैं, जिसके द्वारा साधारण मानव से महान व्यक्तित्व बनने तक की कथा (महात्मा बुद्ध) इस मुद्राओं से इंगित हैं। इन मुद्राओं के द्वारा जन-जीवन को मानवता के कल्याण के लिए अमूल्य संदेश प्रसारित किये गए, जो भारत में ही नहीं भारत के बाहर के देशों में भी अपना विशेष महत्व रखते हैं। ये मुद्रायें ही मानव को अपने भौतिक प्रवेश से ऊपर आकर अलौकिक जगत तक ले जाती हैं और इनके इसी गुण के कारण असंख्य जनसाधारण का अध्यात्मिक जगत से तारतम्य स्थापित होता है। अजन्ता में बुद्ध मुद्रायें मनुष्य को जीवन के निम्न स्तर से एक आदर्श तक पहुँचने के लिए प्रेरित करती हैं। जिसे देखकर जनसाधारण एक अध्यात्म की अभूतपूर्व शान्ति की अनुभूति करता है। आकृति सम्पूर्ण मानवीय गुणों से युक्त होते हुए भी एक अलौकिक प्रतिभा के रूप में लगती है। धर्म प्रवर्तन के लिए जिन आकृतियों, मुद्राओं का चयन किया गया है वो स्वभाव से ही साधारण मानव के लिए एक अलौकिक रूप दर्शाती हैं।
भारतीय कला में जो भी मानव स्वभाव की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है उसकी पृष्ठभूमि में कलाकारों की रूप, आकारों एवं मुद्राओं की गहन साधना है, जिस प्रकार कवि अपनी रचना में प्रत्येक अंग का सविस्तार वर्णन करता है उसी प्रकार चित्रकार ने अपनी रेखाओं और रंगों को इतने परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया है कि गहनतम भावों की विशद व्याख्या स्वतः ही हो जाती है। भारतीय मूर्तिकला से लेकर चित्रकला तक में जितना भी रूप विन्यास हुआ है सभी में कलाकार का शरीर विज्ञान व मनोविज्ञान का समन्वित अध्ययन पूर्णतः सन्तुलित रूप में दिखाई देता है। प्रत्येक मुद्रा के अंकन से भारतीय कलाकार का शरीर विज्ञान से सम्बन्धित सूक्ष्म विश्लेषण दिखाई देता है कि कलाकार रीढ़ की हड्डी द्वारा ही अनुभव कर लेता है कि मानव की विशेष मुद्रा किसी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियास्वरूप बनी, जिसमें हैं- वैज्ञानिक आकृतियों का घूमना, झुकना, सीधा रहना, बेसुध हो जाना, कूबड़ निकला होना, दायें-बायें मुड़ना इत्यादि। इन सभी में बड़ी सूक्ष्मता से आकृति की मानसिक दशा का भी वर्णन दिखाई देता है। आँख की पुतली जिस प्रकार विभिन्न मुद्राओं का प्रदर्शन करती है। भारतीय चित्र रचनाओं में प्रत्येक अंग का सविस्तार अंकन है। एक अंग का दूसरे अंग से सम्बन्ध, इस प्रकार स्थापित किया गया है कि आकृति में भावों की तीव्रता और एक स्फूर्ति का अनुभव होता है। मानवाकारों के द्वारा विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्वों की रचना की गई है। इसके लिए उदाहरणस्वरूप अजन्ता के चित्रों को ले सकते हैं। भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में उससे उनके साधारण मानव से लेकर बुद्धत्व प्राप्ति की अवस्था तक सभी का अंकन मिलता है और इन सभी व्यक्तियों के अंकन में कलाकार की साधक प्रवृत्ति और गहन विश्लेषण शक्ति का सहज परिचय मिलता है। अजन्ता में चित्रित राजा-रानियों, दासियों तथा नभचारी व्यक्तित्व, पाताल लोकवासी जीव सभी का अंकन विशेष आकारों और मुद्रा विशेषों के साथ किया गया है जिसमें उनके स्वभाव, उनकी मूर्ति, प्रवृत्तियों तथा आचार-विचार, रहन-सहन सभी का सफल प्रदर्शन किया गया है। अजन्ता में एक चित्र मरणासन्न राजकुमारी का चित्र है। इसमें राजकुमारी की दशा, उसके शरीर में मृत्यु की अवस्था और चेतना शून्यता, सभी कुछ उसकी देहयाष्टि में समाया हुआ है और उसके आस-पास का वातावरण और आकृतियों की विभिन्न मुद्रायें, विषय के गहरे शोक को उद्दीप्त करते हुए प्रतीत होती हैं। इन मुद्राओं की विशद व्याख्या करते हुए कलाकार दार्शनिक हो जाता है और उसके स्वभावबोध की प्रक्रिया चर्मोत्कर्ष तक पहुँचती दिखाई देती है। प्राचीन काल से ही भारतीय जीवन की सरलता, सौम्यता, उदारता, शालीनता सभी को साकार करती ये मुद्रायें, विश्व की कला में अतुलनीय स्थान रखती हैं।
मुद्राओं के क्षेत्र में भारतीय चित्रकला अपने पूर्ण विकसित रूप में देखने को मिलती है। चित्र में मुख्य मुद्राओं, दृष्टि, हस्त, पैर की मुद्राओं, शारीरिक चेष्टाओं के द्वारा आन्तरिक भावों को रस दशा तक पहुँचाया जाता है और ये प्रक्रिया समरागण सूत्रधार में वर्णित मुद्राओं के अनुरूप है। भारतीय चित्रण में मुद्रायें साक्षात और प्रतीकात्मक दोनों रूपों में देखने को मिलती हैं।
अजन्ता की कुछ विशेषाकृतियों की व्याख्या - इसके पश्चात् कलाधारा की दूसरी दिशा लघु चित्रण की ओर जाती है, जहाँ की आकृतियाँ तथा मुद्रायें एक जकड़न सी लिये हुए हैं और इन की जो अभिव्यक्ति कलाकार ने करनी चाही, उसमें कलाकार उतना सफल नहीं हो सकता जितना कि परवर्ती कला में हुआ। कारण यह भी था कि धार्मिक जकड़न के कारण चित्राकृतियाँ उतने स्वतंत्र रूप में प्रदर्शित नहीं की जा सकीं। आकृतियों के साथ-साथ श्लोक भी लिखे गए, जिनके लम्बे-चौड़े अर्थ एक आकृति के लिये वहन करना दुष्कर प्रतीत होते हैं, किन्तु फिर भी विषय के मुख्य भाव की व्याख्या आकृतियों के द्वारा हो जाती है। इसके पश्चात् धीरे-धीरे करके कला परिपक्व होती गई, शरीर रचना का सिद्धान्त अपने निखरे हुए रूप में सामने आता गया, साथ ही इसमें भौतिकता का भी समावेश होता गया, धार्मिक जकड़न समाप्त होती गई। कला एक स्वतन्त्र रूप में जनजीवन के समक्ष आई और जनसाधारण से जुड़ गई। मुगल कला के समन्वय के साथ-साथ भारतीय मूल चित्रण ने एक विशेष परिष्कृत रूप धारण किया और आकृतियों में लयात्मकता व सौम्यता निश्चित हो गई। दरबार की नफासत और औपचारिकता मुद्राओं में विशेषता दिखने लगी। विषय दरबार से सम्बन्धित थे इसलिये भावाभिव्यक्ति का विस्तार एक विशेष सीमा तक ही इन मुद्राओं में हो पाया। तकनीकी दृष्टि से कला सौष्ठव अपने उत्कृष्ट रूप में समक्ष आया और दरबारों से मुक्त होने के बाद जनजीवन के आस-पास जो कला पनपी उसके अभिव्यक्ति का स्वातन्त्र उसके निखरे हुये रूप में दिखाई देता है। भावाभिव्यक्ति का अनन्त आकाश कलाकारों को मिला, आकृति विज्ञान वही था, किन्तु व्याख्या बदल गई। 'गीत गोविन्द' से सम्बद्ध चित्रों में जो नायक-नायिकाओं की आकृतियों का अंकन हुआ है, जिसमें यदि केवल नेत्रों को ही लें तो चित्र में निहित भावों का केवल वही अर्थ, कहने में सक्षम दिखाई देता है। इन रूपाकारों में और मुद्राओं में रीतिकालीन कवियों की शृंगारपरक, रचनाओं को मानवीयकृत किया गया है।
हस्त मुद्रायें - भारतीय कला में हस्त मुद्राओं को ही देखें तो अध्ययन के लिए एक विस्तृत आयाम दिखाई देता है। इन हस्त मुद्राओं में सम्पूर्ण शरीर से सम्बन्धित जितने भी मनोविकार हैं. सब कुछ हस्त मुद्राओं में ही परिलक्षित हैं। प्रणाम करते हुए, याचना, फूल पकड़े हुए, शंका तथा दुःख प्रकट करते हुए, उँगलियों का संयोजन अजन्ता से लेकर पहाड़ी कला तक अपने आप में एक आदर्श है। गीत, मन्थरता (Soly movement) या चापल्य, आशा-निराशा, सर्वनाश, समर्थ, भय, शंका, सेवा, त्याग एवं करुणा आदि विदित भावों की सुकोमल व्यंजना इन रूपाकृतियों में दर्शनीय है, जो वाणी नहीं कह सकती वह इन मुद्राओं में निहित है।
चित्रकला में मुद्रायें - शारीरिक चेष्टायें एवं रूप मुद्राओं में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं -
शारीरिक चेष्टायें
(A) हस्त मुद्रा
(B) पाद मुद्रा और
(C) शारीरिक भंगिमायें।
रूप मुद्रायें
(A) अलंकरण
(B) आसन
(C) प्रतीक |
हस्त मुद्रायें - नाट्यशास्त्र में कुशल अभिनय के लिये 108 हस्त मुद्राओं की चर्चा होती है, लेकिन चित्रकला में इन सभी हस्त मुद्राओं का प्रयोग नहीं किया जाता है। प्राय: 9 प्रकार की हस्त मुद्राओं का ही प्रयोग मिलता है।
(1) ध्यान मुद्रा (खुले हाथ पर दूसरा खुला हाथ) भावाभिव्यक्ति
(2) धर्म चक्र मुद्रा (तर्जिनी संकेत उंगुली उठाये हुये) वार्तालाप
(3) वितल्का हस्तमुद्रा (खुले हाथ में उंगुली अंगूठे को छूते हुये) तर्क
(4) अभिनय मुद्रा (उन्नत हस्त को पृथ्वी की ओर किये हुये) विश्वास दिलाना
(5) वरदहस्त (उठा हुआ पृथ्वी की ओर हस्त) वरदान या आशीर्वाद
(6) अंजली हस्तमुद्रा (जुड़े हुये हाथ) आत्मसमर्पण
(7) सची हस्तमुद्रा (दोनों हाथों की माध्यिमा अंगुष्ठ सटा रहे और तर्जनी बाहर (छोटी उंगुली निकली रहे) आत्मसमर्पण
(8) भूमिस्पर्श मुद्रण (सीधे हाथ को उंगुली द्वारा भूमिका स्पर्श) आत्माभिव्यक्ति
(9) तर्जनी हस्त मुद्रा (तर्जनी से संकेत करते हुए) भयभाव तथा दण्ड संकेत।
पैर की मुद्रायें - भारतीय चित्रकला में जिस प्रकार नृत्य के अनुरूप हस्त मुद्राओं का प्रयोग किया गया, उसी प्रकार पैर की मुद्राओं का प्रयोग भी इसीलिये किया जाता है।
(1) पद्मासन (बैठे हुये गुणात्मक पैर) योग और समाधि
(2) ललितासन (बैठे हुये दोनों पैरों पर खड़े हुये या लटकते हुये पैर) विचाराधीन
(3) आलीड आसन (खड़े हुये रूप में एक पैर खड़ा और दूसरा झुका हुआ) आत्म विस्मृति या विचार मग्न
(4) ताण्डवासन या नृत्यासन (नृत्य की भंगिमा) संसार का संहार या मानसिक क्रान्ति
(5) अंगुलिङआसन (आलिंगन) एकता या शून्यता, विलीनता।
हस्त मुद्राओं तथा पैर की मुद्राओं के अतिरिक्त आकृतियों की सम्पूर्ण भंगिमाओं के द्वारा विभिन्न भावों को व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। हर प्रयास में जो शारीरिक चेष्टायें की जाती हैं उनका मनोवैज्ञानिक अंकन इस प्रकार की मुद्राओं में देखने को मिलता है। शारीरिक चेष्टाओं का विवरण प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में उपलब्ध है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में 9 स्थानों की रचना की गई है। इन 9 स्थानों को 9 रसों से सम्बन्धित किया गया है और इसी का प्रयोग चित्रकला में किया गया है। चित्रों में शारीरिक चेष्टाओं को मानसिक चेष्टाओं के अनुरूप दर्शाया गया। आकृति के प्रकारों एवं सौन्दर्य को प्रकट करने की भंगिमा के द्वारा विभिन्न रूप विन्यासों का निरूपण किया गया। ये इस प्रकार हैं -
(1) ऋज्वागत
(2) अनऋजु
(3) सांचीकृत
(4) अर्द्धविलोचन
(5) पार्श्वगत
(6) परावृत्त (आवृत्त)
(7) पृष्ठागत
(8) पुरावृत्त
(9) समानत।
इनका विस्तृत वर्णन निम्नलिखित इस प्रकार है --
(1) ऋज्वागत - स्थान के पृष्ठागत एवं कान्ता रूप के दो भेद होते हैं। पृष्ठागत का सौन्दर्य चित्रण सामने से किया जाता है। इसमें सुन्दर अंगों वाली निर्मल और सुसज्जित शैली दर्शायी जाती है और अक्षीण जाँच वाला सौन्दर्य चित्रण का प्रकार होता है। वह पृष्ठागत कहलाता है, जिसका चित्रण अप्रत्यक्ष रूप से किया। कान्ता रूप में सामने की ओर मुख किये हुये जो आकृति होगी उसका प्रत्येक अंग सुन्दर, पुष्ट और उसके कटिभागु, स्कन्धभाग और पैरों को क्षीण बनाया जाता है। सारांश में शरीर के अन्य भागों से एक तिहाई क्षीणता दिखाई जाती है। इसी को अनेक उपकरणों से सम्पन्न ऋज्वागत स्थान कहते हैं।
(2) अनऋजु - जो आधार भूमि के लाभ के अर्थात् आधारगत स्थिति के कारण थोड़ा तिरछा होता है, ऐसी आकृति, सुन्दर वृत्ताकार, सुकोमल, चार भागों में क्षीण दर्शायी जाती है। इसकी भौहें, ललाट और नाक का शिरोभाग अपने परिमाण के आगे दिखाये जाते हैं। आँखें चन्द्रमा के समान दर्शायी जाती हैं और ऐसे चन्द्रमा के समान जो अपनी कला के क्षीण हो जाने पर आधा रह जाता है। भौहें न छायादार प्रतीत होती हैं और न मात्र काली। भारतीय चित्रण में इस स्थान के अधीन अनेक आकृतियों का चित्रण देखने को मिलता है।
(3) सांचीकृत - अनऋजु स्थान में यदि मुख मुद्रा आकाश की ओर लक्ष्य करके चित्रित की गई हो तो वह सांचीकृत होगा। भंगिमा तिरछी और झुकी होती है। यह भंगिमा चिन्ता, भय व्याकुलता और असीमित चिन्तन को प्रकट करती है।
(4) अर्द्धविलोचन - इसमें आधेनेत्र और आधी भौहें लुप्त प्राय: प्रतीत होती हैं और सम्पूर्ण ललाट ही प्रधान्य होता है। वक्ष का आधा भाग मुख के नीचे छिपा हुआ और आधा स्पष्ट होता है। शेष आधा इसी मुख और नाभि के बीच प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक अंग को उसका आधा दिखाया जाता है।
(5) पार्श्वगत - इस प्रकार के चित्रण में पार्श्व चाहे दायां हो या बायां, एक विशिष्ट मुद्रा में दर्शाया जाता है और उस मुद्रा में गति का अनुभव होना भी आवश्यक है। ललाट, भौहें तथा नेत्र एक साथ (एक ही रेखा में) मिले हुये दिखाई देते हैं। कान, आधी ठोड़ी, आधे केश अंकित किये जाते हैं। पार्श्व तत्व होते हुए भी ये रमणीयता और माधुर्य के गुण से युक्त होने चाहिए। भारतीय चित्रकला में शृंगार रस की अभिव्यक्ति में इसका प्रयोग हुआ है।
(6) परावृत्त - इसमें मुख मुद्रा कुपित होती है। कंठ कोमल और क्षीण होते हैं। बाहें, कपोल तथा ललाट में क्षीणता दर्शायी जाती है। वक्ष, कटि प्रदेश अपेक्षाकृत गंभीर दर्शाये जाते हैं। प्रमाण के अनुरूप ही अंगों में विभाजन किया जाता है। इस प्रकार की आकृति में अस्थिरता, निराशा और शिथिलता के भावों में अंकित की गई है।
(7) पृष्ठागत - इसमें पृष्ठ भाग से ही मनोहारी शरीर की रचना की जाती है। थोड़ी-सी टेढ़ी भौहें प्रकट होती हैं और किंञ्चत मात्र नेत्रों के कोर को दर्शाया जाता है और ये सब एक ही पार्श्व भाग के माध्यम से दर्शाया जाता है। यह स्थिति अस्थिर एवं दृष्टि को आकर्षित करने वाली होती है। पृष्ठभाग से ही आकृति के लालित्य तथा सौन्दर्य का दर्शन होता है।
(8) पुरावृत्त - इसमें शरीर का ऊपरी हिस्सा नीचे झुके भाग पर अवस्थिति हो, घुमाव के कारण मुख के आधे भाग में ईर्ष्या की मुद्रा परिलक्षित होती है। आँखें बीच-2 में सुन्दर दिखाई जायें और उनके किनारे के भागों को लुप्त कर दिया जाये। इस प्रकार का चित्रण ईर्ष्या का भाव व्यक्त करता है। इसका अंकन कहीं 2 हुआ है। यह रानियों और दासियों के चित्रों में देखा जाता है।
(9) समानत - इसमें नितम्ब का सम्पूर्ण भाग स्पष्ट रूप से दिखाई देता है और ऊपर के कटि का आधा भाग क्षीण और शेष भाग स्पष्ट हो जाता है। पैर की उंगुलियों का निचला भाग लुप्त हो। पर दोनों पैर के तल सम्पूर्ण रूप से दिखाई पड़ते रहें। ये स्थान चौकोर, परिपुष्ट और प्रियदर्शन हो। भुजायें स्पष्ट हों, दाँत, मुख और कन्धों का अंकन सुन्दर हो। जंघाओं का भाग प्राय: लुप्त हो। इस प्रकार का अंकन समानत मुद्राओं के अन्तर्गत किया जाता है।
रूप मुद्रा - रूप मुद्रा का अर्थ रूप संयोग से है। भारतीय चित्रकला में हस्त, पैर व शारीरिक मुद्राओं के अतिरिक्त रूप मुद्रा का भी भावानुकूल उचित प्रयोग देखने को मिलता है। रूप संयोग से मानसिक वृत्तियों की अभिव्यक्ति में सहयोग मिलता है। उदाहरण एक स्वस्थ श्रृंगारिक आकृति पूर्णतया सुसज्जित दर्शायी जायेगी। जबकि एक विरक्त आकृति निस्तेज, शृंगारविहीन और मलिनतायुक्त दिखायी जायेगी।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय चित्रकला में आकृतियों की मुद्रायें, उनके भावों को रस दशा तक पहुँचाने के लिये प्रयुक्त की गई हैं। सुन्दर सुकुमार भावों से युक्त (स्पंदित) फूल की पंक्तियों के समान उंगुलिया वाणी से भी अधिक वाचाल दिखाई गई हैं। ये मुद्रायें संकेत (भंगिमायें) और प्रतीक (रूप मुद्रायें) दोनों के माध्यम से भावों को व्यक्त करने के लिये दर्शायी गई हैं।
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- प्रश्न- प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला की खोज का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
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